हम लोग स्वाधीनता की स्वाधीनता की 75 वीं वर्षगांठ अमृत महोत्सव के रूप में मनाने जा रहे हैं ।
भारत के बलिदानी सपूतो का विनम्र शृद्धा सुमनों के साथ कृतज्ञता पूर्वक पुण्यस्मरण कर अपनी बात प्रारम्भ करता हूँ।
लगभग तीन सौ वर्ष चले औपनिवेश ताकतों के आक्रमण के विरुद्ध बलिदान होने वाले वीरो के प्रति सच्ची कृतज्ञता यही होगी कि हम अपने देश को एक सशक्त और स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में स्थापित करें। देश के नागरिक के मन में राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान का भाव ही सशक्त भारत के निर्माण की पहली आवश्यकता है।
राष्ट्र प्रेम को उद्दीप्त करती राष्ट्रकवि 'गुप्त' जी के ये शब्द आज भी सामयिक है।
जो भरा नहीं है भावों से,
बहती जिसमें रसधार नहीं,
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं"
राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान का भाव देश की उज्जवल परंपरा एवं विजय के इतिहास से के बोध से जन्म लेता है । दुर्भाग्य से हमें हार का इतिहास, गरीबी का इतिहास, आपसी झगड़ों का इतिहास पढ़ाया गया या लिखा गया । जो अंग्रेजों की औपनिवेशिक बौद्धिक षड्यंत्र की देन था। और आजाद भारत में इस इतिहास को आगे बढ़ाने का काम उन लोगों ने किया जो भारत टुकड़े हो हजार के ऐजेंडे पर काम कर रहे थे। दुर्भाग्य से इन्हीं लोगों के हाथ में भारत की बौद्धिक संपदा को सुरक्षित रखने का काम भी था।
हम भारत के उस इतिहास से तो वाकिफ है जो हमें पढ़ाया गया या जो सामान्यतया पढ़ी जाने वाली किताबों में लिखा गया। परंतु इतिहास के ऐसे कई अनछुए पहलू है जिन्हें हम नहीं जानते या जानते भी हैं तो उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं।
हमें यदि कोई पूछे की भारत मैं मुगल वंश के विषय में क्या जानते हैं तो हम बड़े आसानी से बाबर से लेकर औरंगजेब तक सबके नाम बता देंगे । परंतु यदि कोई पूछे मौर्य वंश, सातवाहन वंश, पल्लव वंश, पांडव वंश , चोल या वोहम वंश के विषय में कितना जानते हैं तो शायद हममे से कई ने इनके नाम भी नहीं सुने होंगे। यह ठीक है कि मुगल वंश का इतिहास ढाई सौ वर्ष का है। परंतु क्या हम जानते हैं मौर्य वंश, सातवाहन वंश और गुप्तवंश का इतिहास 500 साल का रहा। पांडय वंश का इतिहास 800 वर्षों का है।तो चोल वंश का इतिहास 1000 वर्ष से अधिक का है।
यदि हमें स्थापत्य या मोनुमेंट्स के विषय में पूछा जाए तो हमारे दिमाग में सबसे पहले ताजमहल का नाम आता है या लाल किले का नाम आता है । निश्चित रूप से यह दोनों भी स्थापत्य के अद्भुत नमूने है। परंतु क्या हम जानते हैं औरंगाबाद के पास एलोरा गुफा में स्थित शिव मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा मोनोलिटीक स्ट्रक्चर है। यह एक पत्थर से अर्थात पूरे पहाड़ को काटकर बनाया गया दुनिया का सबसे बड़ा स्थापत्य का नमूना है। कर्नाटक के हंपी में स्थित विजय विठला का मंदिर 56 पिलर पर बना हुआ है। इसके प्रत्येक पिलर से अलग-अलग म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट की आवाज सुनाई दे सकती है। आज तक इस मंदिर के स्तंभो से आने वाली म्यूजिकल आवाज की तकनीकी को कोई नहीं जान पाया।
अंग्रेजी साम्राज्य के विषय में यह कहते हैं और पढ़ते भी हैं की ये साम्राज्य बहुत बड़े थे। अंग्रेजों के उपनिवेशों के विषय में भी हम जानते हैं। परंतु क्या हम जानते है कि चोल साम्राज्य के समय इंडोनेशिया थाईलैंड कंबोडिया वियतनाम आदि साउथ ईस्ट एशिया के कई देशो पर चोल साम्राज्य के कई वंशो ने वर्षों तक राज्य किया । कंबोडिया का अनगकोर मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है। इंडोनेशिया और थाईलैंड में आज भी रामायण के ऊपर नाटक बड़े गर्व से अभिनीत किए जाते हैं।
हमें बार-बार हार का इतिहास बताया जाता है परंतु जीत के इतिहास के नायकों के बारे में चुप्पी साध ली जाती है। जिस गजनबी ने सोमनाथ के मंदिर को लूटा था और हिंदुओं की कत्लेआम की थी वह इतिहास तो मालूम है पर उस गजनबी के सेना के सेनापति मसूद गाजी को 11वी शताब्दी में सुहेलदेव ने ना केवल हरा दिया वरन उसे मौत के घाट सुला दिया। इस युद्ध में सुहेलदेव ने स्थानीय राजाओं और जमीदारों को इस युद्ध के लिए एकत्रित किया उनके बीच एकता स्थापित इस विषय पर विषय में इतिहास मौन धारण कर लेता है।
उस अलरक्जेंडार को जिसे दुनिया महान एलेग्जेंडर कहती है उसे पुरुष में ने जिस बहादुरी से हराया उसकी गाथा हम भूल जाते हैं।
चंद्रगुप्त ने अलेक्जेंडर के सेना पति सिल्यूकस को हराया ही नही तो आत्मसमर्पण कराकर एक तरफा संधि के लिए मजबूर कर दिया।
आप कहेंगे की कहां 2000 वर्ष पहले का इतिहास ले बैठे हम तो 1000 साल से गुलामी गरीबी और आपसे झगड़ों के साथ जीते रहे । यह भी एक मिथक है जो हमे रटाया गया। चलो अब हम अंग्रेजों के आने के ठीक पहले हिंदुस्तान की क्या स्थिति थी इस पर गौर करेंगे।
अट्ठारह सौ पचासी में कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज अफसर ओ ह्यूम ने की। शायद हम साम्राज्य वादियों के विरुद्ध आंदोलन का जनक इंडियन नेशनल कांग्रेस को मानते हैं। परंतु इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना जिस ओ ह्यूम नेकी वह स्वयं कहता था कि यह अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश के लिए एक सेफ्टी वालव का काम करेगी ।हालांकि उसके बाद बहुत से राष्ट्र भक्तों ने कांग्रेस में प्रवेश किया एवं आजादी के आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसे भुलाया नहीं जा सकता ।
एक दूसरी तिथि के बारे में कहा जाता है की अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध का पहला आगाज सिराजुद्दौला ने किया । परंतु 1757 में किया गया यह युद्ध ईतना कमजोर था की केवल 11 घंटे की लड़ाई में सिराजुद्दौला की सेना भाग गई । उसने स्वयं 1 घंटे की लड़ाई के बाद मैदान छोड़ दिया और आपाधापी में अपने कुछ बीवियों को और संपत्ति को लेकर गायब हो गया। यह उस व्यक्ति का इतिहास है जिसे आजादी का पहला नेतृत्व करता माना जाता है ।
परंतु यूरोपियन साम्राज्यवादियों का उससे भी पहले डच ईस्ट इंडिया नेतृत्व में पहला समुद्री आक्रमण हुआ ।174 में त्रावणकोर केरल के राजा मार्तण्ड वर्मा यूरोपीय डच सेना को समुद्र में हराने वाले पहले राजा थे।
सौ साल पहले तक डच सेना को समुद्र में अजेय माना जाता था. जिसने अंग्रेजों को दो बार हराया। उस अजेय डच सेना को पारंपरिक हथियारों से और समुद्री मौसम के पारंपरिक ज्ञान के साथ केरल के महाराजा ने हरा दिया । यदि मार्तंड वर्मा सिराजुद्दौला की तरह हार कर भाग गया होता तो पूरा देश अंग्रेजों की जगह डचों का गुलाम होता. लेकिन विदेशियों के मानसिकता के गुलाम हमारे इतिहासकारों ने इस गौरवपूर्ण युद्ध को इतिहास की परतों में दबा देने की कोशिश की।
अट्ठारह सौ सत्तावन के युद्ध के विषय में भी नरेटिव बनाए गए कि यह युद्ध कुछ राजाओं का और थोड़ी सी सेना का विद्रोह मात्र था । अंग्रेजों को ऐसा सिद्ध करने में उनके द्वारा किए गए कत्लेआम को उचित सिद्ध करने का एक बहाना चाहिए था। जबकि वास्तविकता यह थी की 1857 की क्रांति जन युद्ध था, अंग्रेजों के विरुद्ध एक जन क्रांति थी । मजे की बात यह है की कुछ इतिहासकारों ने रोटी और कमल की क्रांति में उपयोगिता को दरकिनार कर दिया। जबकि रोटी और कमल को जन-जन में इस क्रांति को ले जाने हथियार बनाया गया। गांव गांव के चौकीदार इस रोटी और कमल को एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचाते थे। इतना ही नहीं साधु और कथाकारों और मौलवीयों ने भी रोटी और कमल के द्वारा गुप्त रूप से क्रांति के पक्ष में जनमत तैयार करने का काम किया। सेना के बीच में भी रोटी और कमल के द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष का निर्माण किया गया ।
वस्तुस्थिति को देखा जाए तो अंग्रेजी सेना न तो संख्या में न ही युद्ध रचना में पारंगत थी। परंतु अपने कूटनीतिक चालो के द्वारा उन्होंने पूरी दुनिया में उपनिवेश बनाएं वही के राजाओं की सेना का इस्तेमाल किया।
महान कवित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अंग्रेजों के चरित्र का 2 पंक्तियों में बहुत सुंदर वर्णन किया है
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
वास्तव में हिंदुस्तान के साम्राज्य वादियों के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई का इतिहास राजा मार्तण्ड वर्मा से शुरू होता है ।
अब बात करते हैं भारत के अर्थव्यवस्था की। मैं गुप्त काल या मौर्य साम्राज्य की बात नहीं करता जब देश सोने की चिड़िया कहलाता था। मैं तो 17वीं शताब्दी की बात कर रहा हू। भारत की अर्थव्यवस्था पर अगस मेडिसन "1000 वर्ष का आर्थिक इतिहास" में लिखते हैं की 17 वी शताब्दी में भारत की विश्व अर्थव्यवस्था में 33% भागीदारी थी। यह विश्व का सबसे धनी देश था।" स्मरण रहे लंबे युद्ध के इतिहास के बाद भी भारत की यह आर्थिक स्थिति 17वी शताब्दी में थी।
मैं तक्षशिला और नालंदा की बात भी नहीं कर रहा हूं जो उस समय में दुनिया के श्रेष्ठतम शिक्षा के केंद्र थे, जहां विज्ञान चिकित्सा से लेकर दर्शन तक की शिक्षा देश विदेश के विद्यार्थियों को उस काल मे दी जाती थी, जब कई यूरोपीय देशों के लोगो को कपड़ा पहनने की भी तमीज नही थी।
मद्रास प्रांत में सन 1822 और 1825 के दौरान किए गए सर्वेक्षण यह दर्शाते हैं कि तमिल भाषी क्षेत्र में शुद्र या निम्न जाति कि छात्र् सन्ख्या 80% थी| उड़िया भाषी क्षेत्र में 62%, मलयालम क्षेत्र में 54% और तेलुगु भाषी क्षेत्र में 40% थी। *यदि हम मुस्लिम महिलाओं कि बात करें तो मलबार जिले में पढ़ने वाली मुस्लिम लड़कियों की संख्या लगभग 1122 थी ।जबकि इस सर्वेक्षण के लगभग 50 साल बाद अंग्रजों के समय सन 1884 ,85 में मुस्लिम लड़कियों कि संख्या केवल 706 थी।
इसके अतिरिक्त विद्यालयों के साथ-साथ महाविद्यालय भी थे। मद्रास प्रेसिडेंसी जिसमें तमिलनाडु तटिय आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और मालवार के क्षेत्र आते थे, में इनकी संख्या सन 1720 के दशक में 1000 थी। इनमें लगभग 250 राज मुनदरी क्षेत्र में थे। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक बंगाल में नवद्वीप उच्च शिक्षा का प्रख्यात केंद्र था। विशेष रुप से विधि विषय का यह प्राचीन शिक्षा का केंद्र था। विलियम जोंस ने दुनिया की तृतीय यूनिवर्सिटी के रूप में इसका उल्लेख किया है। इस विषय पर 1790 के दशक में इंग्लैंड में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस विश्व विद्यालय में 18वी सदी के उत्तरार्ध तक कई हजार छात्र तथा सैकड़ों शिक्षक थे।
यदि कृषि कि बात करें तो 17वीं 18 वीं शताब्दी में भारत में इसकी स्थिति कि विषय में सर टॉमस बरनार्ड ने जोकि मद्रास प्रांत में इंजीनियर थे, ने अपनी उच्च अधिकारियों के आदेश पर लगभग 800 गांव की खेती की उपज के सर्वेक्षण पर काम किया । विश्लेषण से चौका देने वाली जानकारियां प्राप्त हुई है ।1762 से 1766 तक की जानकारी इसमें दी गई है ।इसके अनुसार इन 5 वर्षों में धान की औसत उत्पादन क्षमता 36 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी और अन्य अनाज का 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पाद था ।
एक अन्य अंग्रेज अधिकारी एलेग्जेंडर वाकर मालावार और गुजरात में 1780 से 1810तक कार्यरत थे। उन्होने लिखा है अकेले मालवार क्षेत्र में 50 प्रकार की धान कि जातियां पैदा होती थी। वे कहते हैं कि बीज की इतनी विभिन्नता तथा ऋतु के अनुसार उसमें परिवर्तन करने की भारतीय किसान की कुशलता विश्व के किसी भी देश के किसानों कि तुलना में श्रेष्ठ है।
एडिनबोरो रिव्यू 1804 कि अनुसार इंग्लैंड में कृषि उपज और खेती कि मजदूरी कि दरों पर चर्चा हुई। जिसमें इस बात पर बहुत आश्चर्य व्यक्त किया गया कि इंग्लैंड की औसत उपज कि तुलना में भारत की औसत उपज कई गुना अधिक थी ।मजदूरी के विषय में भी यह चर्चा का विषय रहा कि भारत में खेतिहर मजदूरों को दी जाने वाली मजदूरी इंग्लैंड की मजदूरी से कहीं अधिक थी ।यह बात ध्यान देने लायक है कि अठारवीं शताब्दि तक, पिछले पांच सौ वर्षों से लगातार हो रहे आक्रमण के कारण भारत कि परंपरागत व्यवस्थाएं चरमराने लगी थी।ऐसे समय में भी भारत कि कृषि व्यवस्था इतनी उन्नत थी, तो व्यवस्था के बिगड़ने के पहले भारत कि उपज और मजदूरी कितनी बेहतर स्थिति रही को होगी।
प्रसिद्ध गांधीवादी श्री धर्मपाल समकालीन यूरोपीय वृत्तांत का संदर्भ लेते हुए (इंटेक्स इंडिया दिल्ली) लिखते हैं भारत के अधिकांश भागों में अत्यंत प्राचीन काल से उत्कृष्ट कोटी के लोहे एवं इस्पात का उत्पादन होता था। सन 1700,1800 शताब्दी में यह विश्व स्तरीय उत्पाद माना जाता था। नीदरलैंड और ब्रिटेन जैसे देश इसका आयात करते थे। हमारे लौह एवं इस्पात का सन 1800 के आसपास का वार्षिक उत्पाद 200000 टन था ।
लोहप्रगालक स्थानीय रूप से उपलब्ध कच्चे लौह अयस्क से लोहे का निर्माण करते थे ।इसके लिए विशिष्ट जाती के वृक्षों की लकड़ी से कोयला बनाया जाता था।आश्चर्य की बात यह है की ये भटिटयां इस प्रकार की होती थी कि उन्हें आसानी से एक से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता था।
जेम्स मिल जैसे अंग्रेज इतिहासकारों ने भारत की 18 वीं शताब्दी की जो नाकारात्मक तस्वीर पेश की है। इसके विपरीत भारत में ज्ञान विज्ञान और मेडिकल के क्षेत्र में एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। प्राचीन ऋषि सुश्रुत की बात करो तो आप कहेंगे फिर 2000 साल पहले की कहानी बता रहे हैं परंतु मैं सुश्रुत के बात नहीं कर रहा हूं मैं उनके शिष्यों की बात कर रहा हूं जिन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में 17 वी अट्ठारह शताब्दी में ऐसे कारनामे किए जो उस समय इंग्लैंड में संभव नहीं थे । जिसमें बंगाल में सन 1790 में आंख से मोतियाबिंद दूर करने के लिए की गई तथा नथूनों को सीधा करने (यह भी हो सकता है कि अन्य अंगों को भी सीधा किया जाता हो) शल्य चिकित्सा प्रमुख थी। नाथूनों को शल्य चिकित्सा द्वारा सीधा करने की प्रक्रिया की जानकारी पुना से और अन्य स्थानों से भी ब्रिटिश रॉयल सोसाइटी के पास पहुंची थी। उन्हें इस जानकारी से कुछ आश्चर्य और अविश्वास में हुआ था। फिर इस शल्य चिकित्सा का विस्तृत अध्ययन किया गया। सन 1810 तक लंदन के कार्क इस भारतीय पद्धति के आधार पर नवीन प्लास्टिक शल्य चिकित्सा की तकनीक विकसित करने में समर्थ हो गए।
इस प्रकार ज्ञान विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रों में ज्ञान के भारत से निर्यात होकर ब्रिटेन में पहुंचने के अनेक उदाहरण है।
टीकाकरण की प्रथा के संबंध में 1710 इंग्लैंड से डॉक्टर ऑलिवर नामक एक अंग्रेज चिकित्सक भारत आया। वह बंगाल में भी घुमा उसने अपनी डायरी में लिखा है "मैंने भारत में आकर पहली बार देखा कि चेचक जैसी महामारी को भारतवासी कितने आसानी से ठीक कर लेते हैं।" स्मरण रहे चेचक तब तक यूरोप में महामारी थी । और लाखों यूरोप वासी मारे जा चुके थे। डॉक्टर ने आगे लिखा है "यहां लोग चेचक के टीके लगवाते हैं जो एक सुई से लगाया जाता है। 3 दिन तक व्यक्ति को थोड़ा बुखार आता है, जिसे ठीक करने के लिए पानी की पट्टियां रखी जाती है फिर व्यक्ति ठीक हो जाता है। जिसने एक बार टीका लगवा लिया वह जिंदगी भर चेचक से मुक्त रहता है। भारत से लंदन वापस आकर ऑलिवर ने डॉक्टरों की सभा बुलाई और टीके की बात बताई। सभी डॉक्टरों को अपने खर्च पर भारत लाया गया और चेचक का टीके की प्रक्रिया को दिखाया गया। डॉक्टर ने भारतीयों से पूछा कि इस टिके में क्या है। वैद्यों ने बताया जो लोग चेचक के रोगी होते हैं हम उनके शरीर का थोड़ा सा पस निकाल कर सुई की नोक के बराबर स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करा देते है। यह जानकारी वे इंग्लैंड लेकर गए। किंतु आपको यह जानकर आश्चर्य और क्षोम होगा कि आज दुनिया एडवर्ड जेनर नामक अंग्रेज चिकित्सक को चेचक के टीके का जनक मानती है।
अंग्रेजी शिक्षा को भारत मे लागू करने विषयक लाये गए बिल और मिशनरियों को भारत मे धर्म परिवर्तन की स्वीकृति के लिए लाये गए बिल ब्रिटिश संसद में पास करने हेतु उनके पक्ष में बोलने वाले दिलबर फोर्स और मेकाले जैसे विद्वान अंग्रेजों ने अपनी संपूर्ण विद्वता को दांव में लगाकर ब्रिटिश पार्लियामेंट को यह समझाने की कोशिश की कि भारत के लोग कितने हद दर्जे तक निम्न श्रेणी के, चरित्रहीन और असभ्य है।
इसी समय इसी पार्लियामेंट में में भाग लेने वाले हाउस आफ कॉमनस के कई सदस्य दिलबर फोर्स की बात से सहमत नहीं थे। भारत में 20 वर्षों से कार्यरत एक ब्रिटिश अधिकारी सर हेनरी मोंटगोमरी ने कहा कि "दक्षिण भारत के जिस भाग में उन्होंने सेवा की उसकी तुलना में लंदन में 150 से 200 गुना अधिक संख्या में अपराध होते हैं।" उसने आगे कहा कि की उनके हाउस ऑफ कॉमंस के सहयोगी सदस्यों के लिए यह अत्यंत अच्छी बात होगी कि वह लंदन की गलियों में रोज रात्रि में बड़ी संख्या में व्यवसाय में लिप्त महिलाओं को देखें तथा उनके चरित्र को सुधारें।"
श्री पी मरे ने इस विवाद में भाग लेते हुए कहा कि" भारत के आदिवासियों की तुलना में अधिक पवित्र अनुशासित लोग दुनिया में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेंगे।"
श्री लूसिंगटन ने कहा कि "संसद में जोर देकर कहा गया है कि भारत में साहित्य नैतिक पतन से युक्त है" लेकिन "उन्होंने इस प्रकार का साहित्य वहां कहीं भी नहीं देखा। तथा इसके बिल्कुल विपरीत इस देश की जो जो पुस्तकें उन्होंने पढी है उसमें नैतिकता के संस्कार सर्वत्र भरे हुए हैं। उनके आमोद प्रमोद विषयक ग्रंथों में भी प्रायः नैतिकता को कभी दरकिनार नहीं किया जाता। श्री लुटिंगटन का विश्वास था की हिंदुओं के खिलाफ परस्पर दांपत्य च्युति का दोष मढ़ा गया है, उसके संबंध में यथार्थ स्थिति यह है कि उनकी महिलाओं का चारित्रिक नैतिक स्तर हमारे यहां की महिलाओं से किसी भी हालत में कम नहीं है। बल्कि महिलाओं में चारित्रिक गुणों की दृष्टि से हमारी अपेक्षा भारत मे महिलाओं का स्तर सामान्यतह बहुत अच्छा और ऊंचा है।
श्री लुसिनटन का विश्वास था की चोरी और हत्याएं भारत में सामान्य रूप से नहीं होती तथा यदि कोई दुर्गुण उनमें है भी तो वे (अंग्रेज) सरकार की देन है, उनका धर्म से कोई संबंध नहीं है।
स्वतंत्रता के पहले 200 वर्षों तक हमें अंग्रेजों की गुलामी के दौर से गुजरना पड़ा। यह गुलामी केवल राजनीतिक नहीं थी। तो योजना पूर्वक अंग्रेजों ने भारत को औपनिवेशिक बौद्धिक षड्यंत्र के द्वारा बौद्धिक दृष्टि से भी गुलाम बना दिया।
अंग्रेज जानते थे की किसी भी देश को कमजोर करना है तो उसकी संस्कृति उसके राष्ट्रवाद और उसके अर्थव्यवस्था पर आक्रमण किया जाए। इसी षड्यंत्रकारी विचार के तहत अंग्रेजों ने भारत को कमजोर करने के लिए कुछ भ्रम फैलाने शुरू किए।
पहला भ्रम भारत कभी भी एक राष्ट्र नहीं रहा, वे बार-बार यह बताने की कोशिश करते हैं कि यह तो अंग्रेजों की देन है कि वे भारत को एक राष्ट्र के रूप में स्वरूप दे रहे हैं।
दूसरा उनकी भ्रमपूर्ण थ्योरी की आर्य बाहर से आए । ऐसा भ्रम फैलाकर अंग्रेज आर्यों को भी अपने जैसा आक्रमणकारी सिद्ध करने में लगे रहे।
तीसरी की भारतीय समाज बहुत पिछड़ा हुआ, असभ्य, अंधविश्वासी, जाती पाती के कारण आपस में लड़ने वाला, जादू टोने पर विश्वास करने वाला है। ऐसे पिछड़े समाज को अंग्रेजो ने सभ्य बनाया।
चौथी बात की भारत जाति व्यवस्था में उलझा है । यह एक सामाजिक बुराई है।
पाँचवीं अछूत यह आर्य आक्रमण से जुड़ी हुई घटना है। आर्यों ने विजित लोगों को अछूत बनाया।
मैकाले जेम्स और दिलबर जैसे कथित अंग्रेज विद्वानों द्वारा फैलाये भ्रम से भारत को बाहर निकलना होगा और अपने स्वस्त्व को पहचानना होगा। अपनी अस्मिता को पहचान कर आने वाली पीढिको गौरव पूर्ण राष्टीय पहचान देनी होगी।
इस पंक्ति के साथ मैं अपनी बात पर विराम देता हूँ
अपने अतीत को पढ़कर, अपना इतिहास उलटकर,
अपना भवितव्य समझकर, हम करें राष्ट्र का चिंतन।। 3।।
हमने ही उसे दिया था, सांस्कृतिक उच्च सिंहासन,
माँ जिस पर बैठी सुख से, करती थी जग का शासन,
अब कालचक्र की गति से, वह टूट गया सिंहासन
अपना तन-मन-धन देकर हम करें पुनः संस्थापन।। 4।।